कांशीराम मुलायम से मायावती अखिलेश तक ....

बाबरी मस्जिद राम मंदिर विवाद के दौर की बात है,बाबरी मस्जिद ढहा दी गयी थी,चारों तरफ हाहाकार सा मचा हुआ था,राजनितिक स्थिति भी बेहतर नही थी,और बाबरी  मस्जिद ढहाए जाने के बाद बर्खास्त हो चुकी सरकार को दोबारा चुने जाने के लिए चुनाव होना था | भाजपा पूरी तेयारी में थी क्यूंकि उसके पास "राम मंदिर" का मुद्दा था और उसे लेकर वो आश्वस्त थी,ये उस वक़्त की वो पहेली थी जो उस वक़्त में किसी से भी हल नही हो पा रही थी क्यूंकि भाजपा की उग्र राजनीति अपने चरम पर थी और बाबरी मस्जिद के ढह जाने के बाद हालात अलग थे,उस वक़्त कांग्रेस से लेकर तमाम दल चुप थे |

लेकिन एक "गठबंधन" ने जेसे भाजपा को चारों खाने चित कर दिया,ये गठबंधन था मुलायम सिंह यादव और काशीराम के बीच यानी सपा और बसपा के बीच,और कुल मिलाकर कहें तो पिछड़े,अति पिछड़े और अल्पसंख्क वोट एक जुट हो गये थे,और उसी का मामला ये बना की एक साथ मिलकर चुनाव लड़ने के बाद भाजपा चुनाव में बहुमत लाने में असमर्थ रही,और बसपा की मदद से मुलायम सिंह यादव की सरकार उत्तर प्रदेश में बनी,उस वक़्त एक विवादित नारा भी दिया गया जी था "मिले मुलायम कांशीराम हवा में उड़ गयें जय श्री राम" |

इस गठबंधन ने उस वक़्त भाजपा को सत्ता में नही आने दिया ये अपने आप में बड़ी बात थी इस गठबंधन के अब उस दौर से अभी के दौर में आ जाइये,राजनीति की एक पीढ़ी खत्म हो गयी है अव दूसरी पीढ़ी मैदान में है,भाजपा अपने उरूज पर है और कुछ चुनिन्दा राज्यों को अगर छोड़ दें तो वो वहां हर जगह राज्य सरकार में शामिल है,केंद्र में उसका तुर्प का इक्का "नरेंद्र मोदी" अब भी चमक रहा है,और तो और उत्तर प्रदेश में भी प्रचंड बहुमत के साथ भाजपा राज कर रही है,अब सवाल ये उठ जाता है की इस दौर में जहाँ बसपा महज़ अपने वजूद के बचाव के लिए भी संघर्ष कर रही है  और सपा जो सत्ता से सीधे दोगुनी संख्या के विधायकों तक पहुँच गयी है क्या ये गठबंधन फिर से मुमकिन है ? क्या ये पासे कोई बिठा सकता है ? सवाल बहुत मुश्किल चीज़ का है मगर नामुमकिन चीज़ का  नही |

अखिलेश यादव अभी हाल ही में एक समारोह में शामिल होकर,केंद्र सरकार की कमिय गिनवा कर,बसपा को खुला ओफ्फर दे गये ज्सिमे कहा गया की "अगर मायावती साथ दे तो साथ मिलकर लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए वो तैयार है",इससे पहले मायवती भी "किसी के भी साथ आने के लिए तैयार है" कह चुकी है,असल में बात ये है की नरेंद्र मोदी और उनके कद के आगे अकेले और अलग अलग ये दोनों हो चेहरे कमजोर पड़ते हुए नजर आ रहें है,हालात ये है की इनके बड़े और दिग्गज नेता भी इनका साथ छोड़ रहें है तो दोनों ही दलों के मुखियाओं का ये कहना लाज़मी है |

अगर गौर मौजूदा स्थिति पर करें तो पिछले साल हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा सत्ता पर काबिज़ हुई और उसे 41 फीसदी वोट मिला और 325 सीट मिली वही 47 सीट पाने वाली सपा को 28 फीसदी और 22 फीसदी वोट पाने वाली बसपा को 19 सीट,बस यही से इस गठबंधन की बात उठती हुई नजर आती है जो मौजूदा हालत में लाज़मी भी है,क्यूंकि उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटें बहुत कुछ तय भी करती है,अगर पिछले लोकसभा चुनाव की बात करें तो भाजपा यहाँ से 73 लोकसभा सीट जीतने में कामयाब हुई थी और यही अहम वजह भी रही थी की उसे बहुमत प्राप्त हुआ और वो सत्ता पर काबिज़ भी हुई |

अगर अखिलेश यादव आयर मायावती दोनों ही पर गौर करें तो ये उत्तर प्रदेश की सियासत की दूसरी पीढ़ी है जहाँ कांशीराम का निधन हो चूका है तो दूसरी तरफ मुलायम सिंह यादव अब उतने एक्टिव नही है,अब मायवती और अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश में नयी राजनितिक पारी के लिए गठबंधन करना है या नहीं इसका फेसला करना होगा क्यूंकि अगर कुछ इसी तरह की कोशिश अगर नहीं हुई तो नरेंद्र मोदी के सामने अकेला जाना इस वक़्त समझदारी नही होगी,बाकी अभी आने वाले कुछ महीनों में क्या घटनाकर्म होगा ये ही देखने वाली चीज़ होगी क्यूंकि सियासत पर नजर रखने वाले खुद इस गठबंधन की अहमियत समझते है,बाकी देखते है .....


असद शैख़

















Comments

Popular posts from this blog

असदुद्दीन ओवैसी जिनकी राजनीति सबसे अलग है...

क्या है कांग्रेस की पॉलिटिक्स ?

सर सैयद डे की अहमियत...