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क्या हमें फर्क पड़ना बन्द हो गया है.?

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समाज का निर्माण हम करते है,हमसे होता है,तो बड़ा सवाल यह है कि हम कैसा समाज बना रहे है? किस तरह बना रहे है? जहां मृत लोग पड़े है और हम इसमे "हिन्दू मुस्लिम" ढूंढ रहे है उसमें "भाजपा कांग्रेस ढूंढ रहे है क्यों? क्यों? क्यों? क्या यह बेरहम समाज का दौर है...? "पीपली लाइव" फ़िल्म के लगभग आखिर में एक सीन है जहाँ नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी और महिला जर्नलिस्ट के बीच कुछ बताचीत हो रही है जहां नवाज़ुद्दीन उस किसान के मरने की बात कर रहें है जो रोज़ 15 से 12 रुपये कमाता था और एक दिन ज़्यादा मेहनत पड़ने की वजह से मर गया,वही दूसरी तरफ वो महिला जर्नलिस्ट ये बता रही है कि "पब्लिक नत्था में ज़्यादा इंटरस्टेड है" असल मे ये फ़िल्म बनी ही इस दृश्य के लिए है। जहाँ जिस सोसायटी में हम रह रहे है,वो सोसायटी हमे इसी तरह "मैनुफेक्चर" कर रही है,इसके लिए आप "मीडिया" को दोष दीजिये "माहौल" को दीजिये या खुद को मगर हम ऐसे हो चुके है कि तीन बच्चे भूख से मर जाये या कोई आदमी अपनी मरी हुई बीवी को अपने कंधे पर हॉस्पिटल से घर ले जाये हमें सिर्फ तब तक फर्क पड़ता है जब तक कि