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#Metoo महज़ सवाल नही है यह आईना है...

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पत्रकारिता जगत,सिनेमा जगत से लेकर सियासत के गलियारों तक #metoo लिखकर सवाल उठने लगें है,आरोप लगाए जा रहे है सवाल यह है कि क्या यही हमारे समाज की हकीकत है? क्या यही हमारे समाज का "निर्माण" है? यह हो क्या रहा है? बहुत बारीक बात है समझने की यह हो क्या रहा है? क्यों हो रहा है? आखिर क्यों इतनी महिलाएं एकसाथ आवाज़ बुलंद कर रही है,क्या ज़रूरत है? बात सिर्फ इतनी सी है कि यह महज एक हैशटैग नही है यह "ज़ख्म" है,जिस तरह ज़ख्म कभी भी हरा हो सकता है,उस तरह यह बात भी हो रही है। यह भी हो सकता है की कुछ लोग इसे "सनसनीखेज" बना रहे है,इसे "पब्लिसिटी" की तरह इस्तेमाल कर रहे है,लेकिन बहुत बड़ा सवाल,और कलंक या यूं कह ले हमारे समाज के लिए बीमारी यह है कि अगर इन हज़ारों आवाज़ों में से,हज़ारों सवालों में से और इन "आरोपों" में से एक भी महज़ एक भी बात सही है तो इसकी ज़िम्मेदारी किसकी है? समाज की बेहतरी की बात हो या उसके निर्माण की बात हो तो तब यह सवाल ज़रूर उठता है कि इसके लिए "कानून" बहुत ज़रुरी है,लेकिन क्या हमारे पास उचित कानून है? चलिये एक वक्त को इस मुहिम को