शहनाई के "उस्ताद" बिस्मिल्लाह...
"यहां गंगा है,यहा बाबा विश्वनाथ है,यह हमारे खानदान की कई पुश्तों ने शहनाई बजाई है, अब हम क्या करें मरते दम तक न तो शहनाई छूटेगी और न काशी"(नोबतखाने में इबादत) उस्ताद ज़िंदगी के ,उस्ताद शहनाई के और उस्ताद गंगी जमुनी तेहज़ीब के, आज ही के दिन बिस्मिल्लाह खां साहब का इंतेक़ाल हो गया था, और ये शख़्सियत उन अज़ीम शख़्सियतों में से एक थी जो "विभाजन" को झेल चुके थे और साम्प्रदायिक शक्तियों की जुबां पर ताला डालने का काम करते थे. बिस्मिल्लाह साहब से कभी मुलाक़ात नही हो पायेगी इस बात का दुःख है लेकिन हां इनसे पहली कथित मुलाक़ात 8वीं क्लास के एक पाठ "नोबतखाने में इबादत" में हुई. उस वक़्त उस्ताद साहब को हम नही जानते थे , बस इतना पता था की ये भारत रत्न है, लेकिन आज पता चलता है की शहनाई का जादूगर आखिर था कोन... अपने नाना को शहनाई बजाते देखने के बाद शहनाई का शौक़ अपनाने वाले उस्ताद साहब बस मोहर्रम के वक़्त चुप हो जाते थे,और 8 दिनों तक शहनाई को हाथ तक नही लगाते थे,लेकिन जब 9 वें दिन ग़मी की शहनाई बजाते थे बहुत रोते थे, हज़रत इमाम हुसैन को याद कर... बिस्मिल्लाह साहब की हैसियत वो थी