बसपा और मुस्लिम..

"दलित मुस्लिम" बसपा मुस्लिम और बहन जी और मुस्लिम ये असल में वो "गठबंधन" है जो कांशीराम ने मुस्लिम बाहुल सीट बिजनोर से 1989 में मायावती को जिताकर दे दिया था,और अपनी ज़मीनी सोशल इंजीनियरिंग को मजबूत करते हुए सामने ला दिया था और 2007 के विधानसभा चुनावों तक ये साथ भी रहें लेकिन उसके बाद से अब तक मुस्लिम बसपा से भागता है,और इतना भागता है की मुस्लिम प्रत्याशी तक को वोट नही देता है,क्यूंकि उसके दिमाग में ये बात आ जाती है की "ये हमारी पार्टी नही है" इसके पीछे वजहें तो बहुत है |

लेकिन हैरत की बात ये है की इस चीज़ का तोड़ कांशीराम 35 साल पहलें ही लिख गयें थे लेकिन अफ़सोस बहन जी भूल गयी और उसी का भुगतान वो भुगत रही है | क्यूंकि मुस्लिम जो आज 2017 तक भी बसपा से दूर है,वो "सिर्फ अपनों का काम करातीं है" वाली बात को दिमाग लेकर घूम रहा है और इसी का बहुत बड़ा रोल है अब ये बात सही हो न हो लेकिन बहुत बड़ी हकीकत यही है |

कांशीराम ने 1982 में अपनी लिखी किताब "चमचा युग" में कांशीराम लिखा था की "चमचो को न तो छेड़ो और न उन्हें साथ लो क्यूंकि ऐसा होगा तो उसकी जगह कोई और ले लेगा" और उन्होंने ऐसा ही किया और ज़मीन पर उतर कर मुस्लिम और दलितों के साथ गठबंधन करने का काम किया लेकिन बहन जी ये चीज़ भूल गयी |

उन्होंने बिलकुल इसके उल्ट काम किया,और उत्तर प्रदेश के मुस्लिमों को "चमचों" के हवालें कर दिया,और चमचों के सुपुर्द कर अपनी "सरकार" की चाह मे लग गयी,लेकिन ऐसे नही होता है साहब और इसी बात का नुकसान हुआ की उत्तर प्रदेश का मुस्लिम उनसे दूर चला गया,और उसे "सपा" ने अपने साथ ले लिया,हालत ये की आज बसपा के पास कोई बड़ा मुस्लिम नेता तक नही है और बस है तो सिर्फ चमचों का झुण्ड |

असल में मायावती जी ने जब "पश्चिम उत्तर प्रदेश" को  बाबु मुनकाद अली,और पूर्वी उत्तर प्रदेश नसीमुद्दीन सिद्दीकी को दिया था,तभी से मुस्लिम दलित के उस ज़मीनी गठबंधन की खत्म होने की नींव रखी गयी,क्यूंकि धीरे धीरे पिछड़ा,गरीब और अपने हक को जानने वाला और समस्याओं को खत्म होने की उम्मीद में अपने आप "बसपा" को समर्थन देता रहा मुस्लिम इसके बाद फौरन ही वो यहाँ से भाग खड़ा हुआ क्यूंकि वो कांग्रेस के "चमचों" से ऊब कर ही बसपा के साथ आया था |

अब उसे फिर से "बसपा" के चमचे नजर आने लगे थे और तो और ये सब वो नेता थे जो आलिशान गाड़ियों से निकला करतें थे,चमचातें हुए कपड़ें पहने हुए "जज्बाती नारें", "कौमी नारें" लगातें हुए चले जाते थे बस यही दिक्कत मुस्लिमों ने झेली और बसपा से दूर बना ली है,क्यूंकि वो बसपा के बड़े नेताओं को "चमचा" समझने लगा था |

अब जब लौटकर हालात आज ये आ चुकें है की जब बसपा के पास खुद बहन जी को राज्यसभा भेजें जाने तक के विधायक नही है और हालात पिछले तेंतीस सालों में सब से बुरे आ चुके है,तो बहन जी के पास अब सिर्फ एक ही हल बचा है की वो खुद ज़मीनी स्तर पर खुद मुस्लिमों के बीच काम करें और मुस्लिमों को यकीन दिलाएं की "चमचें" नही अब हम आपके साथ है |

 जो भी होगा उसका जो भी  समस्या होगी उसका हल मैं खुद करूंगी चमचें नहीं करेंगे,तब जाकर शायद वो स्थिति दोबारा आ सकें जहाँ उत्तर प्रदेश का "दलित मुस्लिम" साथ खड़ा हो सकें और अपनी अपनी समस्या से लड़ सकें,लेकिन इसके लिए कमान बहन जी को खुद उठानी होगी,और ज़मीन पर उतरना होगा,शायद ऐसा हो और शायद नही.....

असद शैख़



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