विपक्ष,लोकतंत्र और सरकार...

"सरकारें आएँगी जाएँगी, पार्टियां बनेगी बिगड़ेंगी मगर ये देश रहना चाहिए इस देश का लोकतंत्र रहना चाहये"

ये पंक्तियां पूर्व प्रधामंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी सरकार गिरने से थोड़ी देर पहले कही थी,और ये बताने की कोशिश की थी की देश में एक सियासी दल की अहमियत कितनी कम है, लेकिन अगर मौजूद हालात पर नज़र डालें तो नज़र आएगा की एक बेहतरीन नेता और प्रधानमंत्री(अटल जी) की छत्रों छाया में बनी पार्टी ही आज इस बात को भूल गयी है,और इन पंक्तियों का सबसे ज़्यादा मखोल उड़ातीं नज़र आती है.

2014 से लेकर अगर अब तक केनरेंद्र मोदी सरकार के ढाई साल के कार्यकाल की करें तो पूरे देश में 'भाजपा' के मेम्बर्स या इस विचारधारा वाले लोगों ने ऐसा माहौल बनाया है जहाँ केंद्र सरकार के या उसके किसी भी फैसले के ख़िलाफ़ बोलना 'देशद्रोह' हो जाता है,जैसे मानो सरकार का फ़ैसला अंतिम फैसला है जिसपर चर्चा,विचार विमर्श या राय रखना सरकार नही देश के ख़िलाफ़ षडयंत्र हो जायेगा और विपक्ष की तो ज़रूरत ही नही.

इसी तरह की शुरुआत करते भाजपा के बड़े नेताओं से लेकर छुटभय्या नेता सबके सब इसी तरह की बात और विचार को आगे बढ़ाते है जहाँ सरकार देश है,सरकार की पार्टी की आलोचना देश की आलोचना है और उसे बर्दाश नही किया जायेगा, लेकिन वो शायद ये भूल रहे है ये सब लोकतान्त्रिक प्रणाली के बिलकुल खिलाफ है और देश के राजैनतिक माहौल के उलट है जिसके अपने डरावने अंजाम होंगे.

बल्कि न सिर्फ ये सब इस देश की लोकतान्त्रिक प्रणाली के ख़िलाफ़ है और तो अटल जी की सोच के भी ख़िलाफ़ है ,जिसे ही शायद भाजपा के लोग अनसुना कर रहे है और पूरी तरह अलग नई प्रणाली बना रहे है, मगर हो न हो ये चीज़ कम से कम विपक्ष,लोकतंत्र और बेहतरीन इतिहास के लिए खतरा है ,जहा क़ाबिलियत के ऐतबार पर जवाहर लाल नेहरू अटल जी को यूएनओ भेजते है और अटल जी इंदिरा गांधी को "दुर्गा" की उपाधि तक देंते है,बाक़ी समझने के लिए अभी वक़्त है ,अभी समझ गए तो ठीक है वरना....

असद शैख़

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