दंगा आज भी "गन्दा" है...

मुझे क्या मिला? क्या मिला दंगों से ,क्या मिला बलवों से? मुझे क्या हासिल हुआ आग लगाकर इंसानी बस्ती में? क्या हासिल हुआ किसी बरसों से रहते इंसान को उजाड़कर? मुझे क्या हासिल हुआ ज़िंदा लोगों को जला कर? क्या हासिल हुआ घरों को वीरान करकर? क्या हासिल मासूमों को यतीम करके, क्या हासिल हुआ माँ को बेऔलाद करके? कुछ नही सिवाय इसके की दिल में एक "ज़ख्म" बन गया है , जिसे ताउम्र खुद ही कुरेतता रहेगा इस बात के लिए की इन चीज़ों का ज़िम्मेदार में खुद हूँ....

ये कुछ सवाल है इसलिए नही की आप वाह वाही करे,इसलिए नही की आप खुश हो जाएं इस को पढ़ कर बल्कि इसलिए है की हम जो ये गुनाह,ये पाप अपने सर पर 1947 से लेते आयें है, और कब तक लेते रहेंगे ? हम "47" में लाखों इंसानी जानों को खत्म कर चुके सियासत की फांसी चढ़ा चुके है.. हम बिहार के भीषण दंगों में हज़ारों जानों को दांव पर लगाकर सेकड़ो जाने ले चुके है, हम "84" में दिल्ली की सड़कों पर हज़ारों जानों को सरेआम क़त्लेआम कर खत्म कर चुके है और हम इसलिए क्योंकि इन सब के ज़िम्मेदार हम ही है...

हम "91" में हज़ारो कश्मीरियों को बेघर कर चुके है, सेकड़ो औरतों की आबरू को सरेआम नीलाम कर चुके है, हम "92" में भगवान के नाम पर उसके बनाये लोगों का खून बहा चुके है. हम मेरठ में बेगुनाह लोगों की लाशों से नालें भर चुके है ,और वही बिना इलज़ाम के कितने ही लोगों को मौत के घाट उतार कर गंगा में बहा चुके है. हम इसलिए क्योंकि मर भी हम रहे है मार भी हम रहे है और ज़िम्मेदार इसके हम ही है...

"02" में कालोनियों की कालोनियां तबाह कर चुके है और इंसानी जान को बर्बाद कर चुके है, हज़ारों जानों को खत्म कर चुके है, वहा पर सेकड़ों औरतों की इज़्ज़त को बर्बाद कर चुके है, हम ही है जो मुज़फ्फरनगर में हजारों लोगों को बेघर कर चुके है, सेकड़ों औरतों की इज़्ज़त को जिस्म को सरेआम नौंच चुकमे है वहा पड़ी लाशों को को टुकड़े टुकड़े कर घुमा चुके है.
हम आज भी इन ज़ख्मों के निशान देख रहे है, और इसके ज़िम्मेदार हम ही है..

आज भी इन दंगों के ज़ख्म हरे है, आज भी उसके यतीम "यतीम" ही है,आज भी उसकी बेवाएं भी "बेवायें" ही है. दंगा खत्म ज़रूर हो गया था लेकिन उसकी तपन आज भी है लेकिन कब तक और क्यों? ये थोडा भी उलझा सवाल नही है सीधा सवाल है इसलिये सारे नेता और विचारक इस सवाल का जवाब नही दे पाएंगे और मुंह में रेत भर कर बेठ जायेंगे, और अगले तमाशे की तैयारी में लग जायेंगे. लेकिन इसके ज़िम्मेदार हम भी है हम यानी इस देश का हर वो वासी जो सियासी मकड़जाल में फंस कर एक दूसरे से नफ़रत कर रहा है...

में सभी से पूछना चाहता हूँ की बेगुनाह शुरू से लेकर अब तक मर रहे है, और हम सिर्फ सियासत की वजह से एक दूसरे के खून के प्यासे है, एक दूसरे से नफ़रत कर रहे है, एक दूसरे से गृहणा कर रहे है और तो नफ़रत का हाल ये है की हम अपने धर्म का नाम लेकर बेगुनाहों की जान ले रहे है लेकिन समझ नही रहे है उस सच्चाई को हम सब जानते है की जिस तरह "47" में एक पार्टीशन करते हुए एक बार बाँट चुके है क्या हम इस तरह आपस में धर्मों की वजह से अघोषित बंटवारा नही कर रहे है?
बेहतर है की ऐसा न हो क्योंकि ऐसा कुछ झेलना हम भारतीयों के बस का नही है...

लेकिन हम धर्म का डंडा साथ लेकर फिरने वालों का साथ देते है और दूसरे धर्म वालों का नुक्सान करते है और फिर पछता भी नही रहे है,
हम "गाय" के नाम पर एक दूसरे की जान ले रहे है . लेकिन इस भारत की मिटटी में कोई ऐसा होगा भी जो दूसरे धर्म की इज़्ज़त न करें और करे भी क्यों न हमारा फ़र्ज़ है एक दूसरे की इज़्ज़त करना और मुझे नही लगता और न ही ऐसा कोई मुझे मिला, हां कुछ इंसानी खाल लपेटें जानवर ज़रूर है जो आग लगाना जानते है,मगर हां इसका तरीका भी किसी की जान लेना भी हरगिज़ नही हैं लेकिन ज़िम्मेदारी हमे अभी लेनी होगो सम्भलना होगा वरना बहुत देर हो जायगी.... और फिर लाशें उठाने पर धर्म भी नही देख पाएंगे...... याद राखियेगा...क्योंकि न तो दंगो से कुछ हासिल हुआ था और न ही होगा..... याद राखियेगा बाकी आप जानो....

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