पत्रकरिता

घटना और उसकी पड़ताल फिर उसे तटस्थ तरह से तमाम लोगो तक पहुँचाने को पत्रकारिता कहते है अब आप मुझे फिक्की की रिपोर्ट पढ़ने को कहे सीनियर बन जाने को कहे या और किताबें पढ़ने को कहे मगर पत्रकरिता का मतलब सिर्फ और सिर्फ सच को तटस्थ रूप से सबके सामने लाना है लेकिन आपको 55 साल लगेंगे शायद ऐसे पत्रकार को ढूंढने में या ऐसे संस्थान को ढूंढने में अब अगर बात यहाँ मीडिया से जुड़े लोगो से पूछा जाये या उनसे यही बात बताई जाये तो वो कहेंगे की तुम पुराने हो अब पत्रकरिता के संस्थानों में भारतेंदु और अकबर इलाहाबादी को पढ़ाया जाता है और फ़ौरन परिवर्तित होकर ये लोग पुराने हो जाते है इनकी बताई पत्रकरिता पुरानी हो जाती है और बेचारा "सच" मुंह छुपाकर फिरता है अब सोचये क्या ये पत्रकरिता है,  शायद हो या न हो लेकिन पत्रकारिता या आज उस नाम की ये चीज़ उद्योगपतियों की ग़ुलाम हो गयी है और इसके इस करम में साझीदार हम भी है और अगर साझेदार है तो क्यों दूध के धुलो की तरह मीडिया को दल्ला, ईमान को बेचने वाला कहते है  बरहाल सवाल ये है आखिर किस तरह और क्यों  मीडिया को ये सब कहने का मौका मिला और अगर कोई इस तरह की भाषा का प्रयोग करता है और वो गलत है तो क्या उसपर कार्यवाही होगी ये सवाल और फिर सवाल और जवाब और फिर पत्रकरिता और इलज़ाम हम सबको ऐसे तूफ़ान में फंसा देते है जिससे बहार निकलना बहुत मुश्किल सिद्ध होगा और चलुए फंस जाये जायेंगे नही निकल पाएंगे लेकिन फिर हमारा चौथा खम्बा कहा जायेगा? क्या होगा इस खम्बे का क्या होगा इसकी सच्चाई का क्या होगा इससे सच की उम्मीद करने वालो का क्या पत्रकारिता मर जायगी? शायद ऐसा हो भी जाये क्योंकि जिस तरह पेसो के बहाव पर तैरते और उद्यिगपतियो के चंदे पर नंगा नाच करते हुए मीडिया संस्थान के सामने चन्द सच और सही लिखने वाले बचे है शायद वो भी न बच पाये क्योंकि पेस और पैशन होता ही ऐसा है उसके सामने किसी चीज़ की कोई हैसियत नही रहती और पत्रकरिता जो आजकल बिलकुल खत्म ही हो गयी है तो फिर बेचारी बचेगी ही कहा मगर इस बात को कह देना जितना आसान है उतना ही दुखदायी भी है क्योंकि कोई भी पत्रकरिता के इस हाल से ख़ुश नही है लेकिन फिर भी इंतज़ार करिये और देखते रहिये और उम्मीद करिये क्योंकि जब उम्मीद पर दुनिया कायम है तो सच्ची पत्रकरिता भी शमिल हो सकती है क्यों है न।।

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