मीडिया और सिनेमा

0 से 40 साल ही बीते होंगे हा लगभग इतने हि साल हुए है जब राजकपूर साहब की फ़िल्म "बॉबी" पर अच्छा खासा विवाद हुआ था ,वजह सिर्फ इतनी थी की  उस फ़िल्म की नायिका ने हाफ स्कर्ट पहन ली थी जी हा यकीन मानिये यही थी वो वजह और जब इस विवाद को देखा गया तो फ़िल्म को A सर्टिफिकेट दे दिया गे यानि ये फ़िल्म सिर्फ युवा देख पाएंगे अब यदि जब के और अब के भारतीय सिनेमा की बात करी जाये तो कोनसा ऐसा तूफ़ान या आफत सिनेमा बनाने वाले या लिखने वालो के बीच जो इस बात पर विवाद हो रहा है और एक होड़ सी लग गयी है कैसे पोर्न एक्टर्स तक को फिल्मो में ले लिया जाये में उस एक्ट्रेस का न तो समर्थन करता हु और न विरोध लेकिन हा उस मंशा का विरोध करता हु जो ये है की दर्शक को महज़ सिनेमा तक खींच लाने की है वो भी शर्मसार तरीके से और माहोल को बिगड़ने के लिए ।

अब आप चाहे जो भी कहले मगर ये तो मानना पड़ेगा की भरतीय सिनेमा वो नही रहा जब यहाँ को फिल्मो की सराहना अमरीकी पत्रिकाओ तक में होती थी हालांकि इक्का दुक्का फिल्में अब भी ऐसी है मगर वो इतनी कम है जिन्हें उंगलियो पर गिनने पर भी आप शर्म करेंगे लेकिन अब फिल्में महज़ इसलिए बनती है की उससे 100 करोड़ और 200 करोड़ कमाये जा सके अब तो सिर्फ पेसो की रामायण रह गयी है न की फिल्मो की पवित्रता की, सच्चाई की, समाज को सीख देने के काम की अब इसका दोषी किसी को भी कह सकते है मुझे अपने आप को या बाज़ारवाद से लेकर उदारीकरण को या कथित मोडर्निसशन को लेकिन ये सिर्फ दिल को दिलासा देना भर है वरना भारतीय सिनेमा में जो कुछ भी भारी मात्रा में दिखाया जा रहा है वो "लगभग" पोर्न जैसा ही है और अब तो ऐसा नाम भी दिया जाने लगा है लेकिन इन सबको को दिखाए जाने की हिम्मत और ऐसा करने के पीछा का सच ये भी है की इन सब के ज़िम्मेदार कही न कही हम भी है जो छुप छुप कर और मज़े में इसे देखते है और दोस्तों के बीच इसकी चर्चा करते है भारतीय सिनेमा जिसे एक सभ्य तबका साहित्य जैसा मानता हो कम से कम इस तरह का सिनेमा उनके लिए तो शर्मसार कर देने वाला है ही।

यदि आज की मुख्यधारा की फिल्मो की करी जाये या यूँ कहा जाये कमाई के लालच में बन रही फिल्मो की बात करी जाये जो अगर इसी तरह चलती रही तो यकीन मानिये ये सिनेमा साहित्य, पटकथा और असल सिनेमा के आदर्शो के साथ भद्दा सा मज़ाक है क्योंकि शराब पीने से लेकर सेक्स की दावत देने वाले गानो का आखिर किस तरह उचित हो सकता है जहा हाफ स्कर्ट दिखाए जाने फिल्मो को A सर्टिफिकेट दे दिया जाता है वहा पर पुरे खुलेपन के साथ और मज़े ले लेकर दिखाया जा रहा है इसको खुलेपन और मॉडर्न होने का नाम दिया जा रहा है और फिर इस पर सब की चुप्पी होन फिर चाहे फिर चाहे फ़िल्म समीक्षक हो ,पुराने कलाकार हो, निर्देशक हो निर्माता हो या फिर तथकथित सांस्कृतिक रक्षक हो अब के सब चुप होकर देख रहे है और इससे होने वाली तमाम समस्याओ से जानबूझकर मुंह छुपा रहे है और यदि बात सेंसर बोर्ड की करी जाये तो वो भी अपने कानो में तेल डाले सो रहा है और महज़ ऐ सर्टिफिकेट देकर अपनी ज़िम्मेदारियों से पल्ला झाड़ देता है अब कोई उनसे पूछे की ऐ सर्टिफिकेट वो दे या न लेकिन ये फिल्में सभी उम्र के लोगो तक आराम से पहुँच जाती है।।

लेकिन जब आजकल के डायरेक्टर और प्रोड्यूसर से लेकर लेखको तक से ये पूछा जाता है की ऐसा क्यों दिखा रहे है आप ? तब वो बहुत आसानी से कह देते है की " आजकल यही देखा जाता है और पसन्द किया जाता है" अब में ये सवाल हर उस लेखक से और उन सभी निर्देशको से पूछना चाहता हु जो ये बहाने बना रहे है की किसने हॉलीवुड में अश्लीलता की शुरुआत की ? किसने महज़ भारी भरकम कमाई के लिए युवाओ को शराब और सेक्स के लिए सिनेमा में परोसा? आखिर किसने बिकिनी पहनी लड़कियो को खुलेआम 70 एमएम के पर्दो पर दिखाया ?  अब आप बताइये ऐसा कुछ लिखना क्या आसान है नही हरगिज़ नही ऐसा करने के लिए उन्होंने लेखन धर्म को पश्चिमीकरण का पेट्रॉल डाल कर सारे सभ्य इतिहास की आग लगाकर ऐसा लिखा और दिखाया तभी तो उसके बाद चोरी चुपप्पे पुलिस के डर से चलने वाली बी ग्रेड की घटिया और बेहूदा फिल्म पर्दो पर आ पायी उसी के बाद तो युवाओ ने पसन्द किया न युवाओ ने कोई बहुत बड़ा आंदोलन चलाया और जान से मारने की धमकी दी थी क्या सभी लेखको और निर्देशको  को की ऐसा लिखो और बनाओ या युवा ही थे जिन्होंने ये कहा था की हनी सिंह से गाने में शराब की खुबिया बताये या रोड़ी राठौर की आइटम गर्ल से अकेले अंदर बुलाओ ये मांग भी युवाओ ने करी थी क्या?? नहीं सिर्फ या निर्देशको और लेखको बिना बात के बगैर पटकथा के और महज़ फालतू और अभद्र चीज़ों को एकत्र कर ग्रैंड मस्ती और सुपरकूल है हम जेसी फिल्मो को प्रदर्शित किया गया सिर्फ और सिर्फ अपने लिए अब इन लोगो को कोई क्या बताये फ़िल्म और सिनेमा गलत होने पर प्रधामंत्री तक को हिला सकता है वो भी सिर्फ अपनी सच की ताक़त पर लेकिन जब घटियात्म,नीच,अभद्र और शर्मनाक चीज़ों का जब मिश्रण बनाया जाता है तो सत्य और पवित्र चीज़ो वाला सिनेमा नही सडांध भरा घटिया और बेहिस सिनेमा ही मिलता है असल में ये कुछ ऐसे लेखक और निर्देशक ऐसे है भरतीय मीडिया के दलाल वो भी पेसो के लिए अपना ईमान, सच्चाई बेच देते है और  फ़र्क़ सिर्फ इतना है की ये इसके साथ साथ अपना हुनर भी बेच देते है ।

यदि ये सब जानने और देखने के बाद भी आप भारतीय सिनेमा के इस घटियातम दौर को आप महज़ बदलाव का नाम दे रहे है तो आप सबसे पहले प्रेमचंद से लेकर गुलज़ार तक और दिलीप कुमार से लेकर आमिर खान तक के समेत सभी सिनेमा को लिखने वाले और बनाने वाले और इससे जुड़े तमाम लोगो की आँखों में मिर्च भरदो जिससे वो लोग कुछ देख तो न पाये क्योंकि जब तमाम सभ्य,सत्य और अमूल्य सिनेमा को पश्चिमी करण और कथित मोडेरर्निसशन का तेल छिड़क कर आग लगायी जायगी तो उसे देखने के लिये इनकी आँखे नही होंगी और फिर उसके बाद आप जो चाहे करियेगा चाहर शराब की बात हो सेक्स की क्योंकि अब तो  फ़र्क़ पड़ता नही अब टी मिसाल पूरी हो ही गयी की "बुढ़ापा तो खुदा ने छीन लिया और जवानी टीवी ने छीन ली"
क्यों टीवी की बुराई का मतलब समझे न आप??

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