सिनेमा के सच से दूरी

अब सोचिये आप की कैसे रंगीन दुनिया शाहरुख़ खान बना रहे है? कैसे महज़ फेयर एंड लवली लगाने से  जॉब और पैसा मिल रहा है? क्यों आखिर डीडी के चैनल देखना नैरो माइंडेड हो गया या धारावाहिको का इतना एक्सपेंसिव होना शुरू हो गया मानो जनरल स्टोर हो अं ये फ़र्क़ तो हमने बनाया है हमने ही तो समाज को तैयार किया ही कुछ ऐसा है की हम शायद किसी भी धारावाहिक में विज्ञापन में अन्य किसी भी जगह आम आदमी को देखने में भी तरस जायेंगे ये बात बहुत सोचने की है बल्कि विचार और विमर्श करने की है की आखिर समाज को चलाने वाला सिनेमा जो असग़र वजाहत, गुलज़ार और गिरीश कर्नाड के नाटको और पटकथा जेसे अन्य सरीखों चीज़ों पर चलकर लोगो को एक समझ बनाने में मदद करता था अब वो ऐसी पटकथा पर निर्भर करता है जहा त्योहारो का इंतज़ार करते हुए उसमे बदलाव होता है और उसका भी ऐसा विज्ञापनकरण होता है मानो हाथो हाथ कुछ तैयार हो रहा हो लेकिन इन चीज़ों ने ये तो तय कर ही दिया की अब साहित्य और सिनेमा में सच्चाई न के बराबर ही रह गयी है ...

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