Posts

असदुद्दीन ओवैसी जिनकी राजनीति सबसे अलग है...

Image
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव और हरियाणा विधानसभा चुनावों के साथ बिहार की कई सीटों पर उपचुनाव भी हुए है,इन चुनावों ने एक राजनैतिक दल ने सबसे ज़्यादा चौंकाने वाले परिणाम दिया है,वो है असद्द्दीन ओवैसी की पार्टी मजलिस इत्तेहादुल मुस्लिमीन जिसने महाराष्ट्र विधानसभा में पिछले विधानसभा की तरह  2 सीट हासिल की है और कई सीटों पर दूसरे नंबर रही है और तो और इस दल ने बिहार की किशनगंज विधानसभा उपचुनाव सीट पर भी जीत हासिल कर वहां भी अपना खाता खोला है | असद्दुदीन ओवैसी अब आगे झारखंड विधानसभा चुनाव भी लड़ने की कोशिशों में है तो यहां यह सवाल उनसे पूछना बनता ही है की पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?   असद्दुदीन ओवैसी,इस राजनेता का नाम तो एक है लेकिन काम कई है,यह टीवी स्टूडियो  से लेकर जनसभाओं तक हमेशा अपने विरोधी राजनैतिक दलों पर आक्रामक रहते है और बात को तथ्यों के आधार पर रखते है और अपने बोलने की खूबी से जनता को अपनी तरफ खींचने की कुव्वत भी रखते है आज की राजनैतिक स्थिति में असद्दुदीन ओवैसी से यह सवाल करना लाज़मी ही हो जाता है की यह चाहते क्या है ?  इनकी पॉलिटिक्स क्या है ? आइये कुछ इस पर न

क्या है कांग्रेस की पॉलिटिक्स ?

Image
चुनाव आयोग ने देश की भविष्य की सरकार के चुने जाने की तारीखों का ऐलान कर दिया है,7 चरणों मे होने वाले इन चुनावों का परिणाम 23 मई को आएगा, और इसी के साथ यह बहस भी शुरू हो गई है कि सत्ता में कौन आएगा? तमाम सर्वे को गौर कर देखें तो भी क्या देश का विपक्ष राजनीतिक पिच पर बोलिंग करने की स्थिति में है? यानी 5 साल से सत्ता पर काबिज़ "बैट्समैन" नरेंद्र मोदी को आउट करने के लिए तैयार है? जो स्थिति विपक्ष और मुख्य तौर पर कहें तो कांग्रेस की है उसमे मौजूद बड़े बड़े नेता यह चाहते तो है कि नरेंद्र मोदी चुनाव हारें,मगर कैसे यह बताने से वो पीछे हट रहे है,मिसाल के तौर पर राहुल गांधी ने ऐलान कर दिया है कि वो "आप" से गठबंधन नही करेंगे,और अकेले 7 की सात सीटों पर चुनाव लड़ेंगे,राहुल गांधी ने शायद पुराने आंकड़े और मौजूदा हक़ीक़त पर गौर नही किया है,जिसमे उन्हें पिछले लोकसभा चुनावों और विधानसभा चुनावों में वहां ज़ीरो सीट मिली थी।इस बार भी बहुत हद तक कहा जा सकता है कि दिल्ली में कांग्रेस खाता भी न खोल पायें,यह तो दिल्ली की 7 सीट की बात है। उत्तर प्रदेश को देख लीजिए, वहां सपा और बसपा साथ

मौके की नज़ाकत को समझते है अखिलेश यादव...

Image
बसपा सपा का गठबंधन उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के लिये फाइनल हो गया है,सपा जहाँ 37 सीटों पर चुनाव लड़ेगी,वही बसपा 38 सीटों पर चुनाव लड़ने जा रही है,वही रालोद को 3 सीटें दे गई है,इतना ही नही आज ही एक खबर के अनुसार अखिलेश यादव ने कांग्रेस को 9+2 सीटों का ऑफ़र भी दिया है। इस खबर ने जैसे राजनीतिक हलके मे कोहराम मचा दिया है,क्योंकि इस "महागठबंधन" के फाइनल होने को स्थिति में वोटों का बिखराव खत्म हो जाएगा। इस "महागठबंधन" को अमली जामा पहनाने में जो सबसे ज़्यादा कोशिश की जा रही है वो अखिलेश यादव की है। अखिलेश यादव ने वक़्त की नज़ाक़त को बखूबी समझा है,वो जानते है और समझते है 2019 के लोकसभा चुनाव में हार का मतलब क्या हो सकता है। उन्हें पिछले तीन चुनावों से अच्छा प्रदर्शन न करने वाली बसपा को बराबर की सीटें दे दी है,और यदि कांग्रेस भी इस गठबंधन में आती है तो इस "महागठबंधन" से उत्तर प्रदेश में बहुत बड़ा बदलाव देखने को मिल सकता है। लेकिन एक तबका ऐसा भी है जो यह कह रहा है कि अखिलेश गलत कर रहे है,उन्हें झुकना नही चाहिए,वो उत्तर प्रदेश में मज़बूत है,और अखिलेश यादव खुद

राहुल गांधी का "नेता" बन जाना ....

Image
2013 की बात है आज से लगभग 5 साल पहले की गोवा में भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हुई थी जिसमे नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री का चेहरा घोषित करते हुए,भाजपा ने अपने तुर्प का इक्का चल दिया था,और तब से लेकर तकरीबन 4 साल तक नरेंद्र मोदी ने वो करके दिखाया जो भारतीय राजनीतिक इतिहास में बहुत कम हुआ है,वह सत्ता के शिखर तक पहुंचे,प्रधानमंत्री बने और इतना ही नही लगातार राज्य-वार भी भाजपा को "अजय" साबित कर दिया । जिसमे "उत्तर प्रदेश", "हरियाणा" से लेकर राजस्थान,मध्य प्रदेश और देश के तकरीबन 19 राज्यों में सत्ता हासिल कराई और इसमें कोई दो राय नहीं है की हर जगह की जीत का श्रेय नरेंद्र मोदी "ब्रांड" ही को गया,और इसके सामने यानि "विपक्ष" में कौन था ? भाजपा की भाषा में कहे तो "पप्पू" राहुल गांधी बस लेकिन.. वक़्त बदलता है। अब ध्यान दीजिए मौजूदा स्थिति पर आज इस घटनाक्रम को यानी मोदी "ब्रांड" को 5 साल के लगभग समय हो गया है और आश्चर्यजनक बात यह है की ठीक पांच साल बाद ही राहुल गांधी को भाजपा के गठबंधन में मौजूद पार्टी शिवसेना कह रह

क्या हमें फर्क पड़ना बन्द हो गया है.?

Image
समाज का निर्माण हम करते है,हमसे होता है,तो बड़ा सवाल यह है कि हम कैसा समाज बना रहे है? किस तरह बना रहे है? जहां मृत लोग पड़े है और हम इसमे "हिन्दू मुस्लिम" ढूंढ रहे है उसमें "भाजपा कांग्रेस ढूंढ रहे है क्यों? क्यों? क्यों? क्या यह बेरहम समाज का दौर है...? "पीपली लाइव" फ़िल्म के लगभग आखिर में एक सीन है जहाँ नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी और महिला जर्नलिस्ट के बीच कुछ बताचीत हो रही है जहां नवाज़ुद्दीन उस किसान के मरने की बात कर रहें है जो रोज़ 15 से 12 रुपये कमाता था और एक दिन ज़्यादा मेहनत पड़ने की वजह से मर गया,वही दूसरी तरफ वो महिला जर्नलिस्ट ये बता रही है कि "पब्लिक नत्था में ज़्यादा इंटरस्टेड है" असल मे ये फ़िल्म बनी ही इस दृश्य के लिए है। जहाँ जिस सोसायटी में हम रह रहे है,वो सोसायटी हमे इसी तरह "मैनुफेक्चर" कर रही है,इसके लिए आप "मीडिया" को दोष दीजिये "माहौल" को दीजिये या खुद को मगर हम ऐसे हो चुके है कि तीन बच्चे भूख से मर जाये या कोई आदमी अपनी मरी हुई बीवी को अपने कंधे पर हॉस्पिटल से घर ले जाये हमें सिर्फ तब तक फर्क पड़ता है जब तक कि

सर सैयद डे की अहमियत...

आइए आज थोड़ा इतिहास का ज़िक्र करते है,जब ब्रिटिश हुकूमत उरूज पर थी,उनकी मर्ज़ी के बिना पत्ता भी नही हिलता था,पूर्व से लेकर पश्चिम तक और उत्तर से लेकर दक्षिण तक सिर्फ उनका और उनकी हुक़ूमत का बोलबाला था,जो भी उनके विरुद्ध होता था उसे या तो फांसी पर चढ़ा दिया जाता था,या ताउम्र की सज़ा के लिए जेल में डाल दिया जाता था,और सोचिये उस वक़्त में उनकी हुक़ूमत में कोई अंतराष्ट्रीय स्तर का "स्कूल" खोल ले तो? कोई उस स्कूल में टेक्नोलॉजी, इतिहास,दर्शन और विज्ञान का भंडार कर दे तो? क्या आप यक़ीन कर सकते है? ऐतिहासिक समझ रखने वाले जान सकते है कि यह हुआ था,और इस होने का ही मामला है आज हम "अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी" देखते है और उसमे से निकले देश का नाम रोशन करने वाले "अलीग" निकलते है,और यह कारनामा किया था सर सैयद खान ने,17 अक्टूबर के दिन उन्ही की योमे पैदाइश का दिन है। आज हम जब भारतीय मुस्लिमों के पिछड़ेपन की बात करते है,उसका ज़िक्र करते है,या इसी मुद्दे पर आई "सच्चर कमिटी" का ज़िक्र करते है तो उसमें शिक्षा एक बहुत बड़ा मुद्दा होता है,क्योंकि भारतीय मुस्लिम समुदाय शिक्षा के

#Metoo महज़ सवाल नही है यह आईना है...

Image
पत्रकारिता जगत,सिनेमा जगत से लेकर सियासत के गलियारों तक #metoo लिखकर सवाल उठने लगें है,आरोप लगाए जा रहे है सवाल यह है कि क्या यही हमारे समाज की हकीकत है? क्या यही हमारे समाज का "निर्माण" है? यह हो क्या रहा है? बहुत बारीक बात है समझने की यह हो क्या रहा है? क्यों हो रहा है? आखिर क्यों इतनी महिलाएं एकसाथ आवाज़ बुलंद कर रही है,क्या ज़रूरत है? बात सिर्फ इतनी सी है कि यह महज एक हैशटैग नही है यह "ज़ख्म" है,जिस तरह ज़ख्म कभी भी हरा हो सकता है,उस तरह यह बात भी हो रही है। यह भी हो सकता है की कुछ लोग इसे "सनसनीखेज" बना रहे है,इसे "पब्लिसिटी" की तरह इस्तेमाल कर रहे है,लेकिन बहुत बड़ा सवाल,और कलंक या यूं कह ले हमारे समाज के लिए बीमारी यह है कि अगर इन हज़ारों आवाज़ों में से,हज़ारों सवालों में से और इन "आरोपों" में से एक भी महज़ एक भी बात सही है तो इसकी ज़िम्मेदारी किसकी है? समाज की बेहतरी की बात हो या उसके निर्माण की बात हो तो तब यह सवाल ज़रूर उठता है कि इसके लिए "कानून" बहुत ज़रुरी है,लेकिन क्या हमारे पास उचित कानून है? चलिये एक वक्त को इस मुहिम को