सवाल "कानून" का है...

आज 6 दिसम्बर है आज की तारीख का इतिहास आज़ाद भारत के इतिहास में हमेशा याद किया जायेगा,और जब जब इतिहास लिखा जायेगा और इतिहास में इस तारीख का ज़िक्र होगा तो सवाल ज़रूर होगा की संवेधानिक धारणाओं पर बने देश के लिए,कानून के तहत न्यायालय के तहत चलने वाली प्रणाली पर "भीड़" हावी हो गयी थी,क्यूंकि इस दिन उन्मादी भीड़ ने न्यायालय के फैसलें को तार तार कर दिया था और पैरों तले रोंद दी गयी थी सांप्रदायिक सोहार्द की धारणा क्यूंकि इस दिन बाबरी मस्जिद को तोड़ दिया गया था,एक एक ईट और दीवारों से बनी इस एक इमारतों को बारी बारी गिरा दिया गया था तीनों गुम्बदों को गिरा दिया था | न्यायलय के आदेश के विरुद्ध और सरकारी तंत्र की मौजूदगी में ये सब हुआ और इतिहास में दर्ज हुआ था ये दिन क्यूंकि इस दिन एक "मस्जिद" सियासत की भेंट चढ़ी थी धर्म "सियासत" के हाथ में गया था ,इस बात की तकलीफ आज तक है क्यूंकि इसी दिन खत्म हुआ था आपसी सोहार्द |

इस दिन सिर्फ एक मस्जिद नही टूटी थी टूटी थी यकीन की धारणा और टुटा था विश्वास,टूटी थी उम्मीद और कमज़ोर हुआ था न्यायलय और सरकार पर भरोसा क्यूंकि इस दिन "सरकार" समप्रदायिक हो गयी थी और वो फैसलें संवेधानिक तौर पर नही "भावना" के आधार पर ले रही थी क्या संविधान के मातहत देश में फेसले भावना के आधार पर होते है ? और उसी फैसलें के आधार में टूट गयी मस्जिद और टूट गया विश्वास और दंगों और नफरतों की आग में जल गयें थे देश के कितने ही इलाके,कितने ही मारे गये थे और कितने ही अपाहिज हुए थे और कितनो ही की आँखों में थे "ग़म" जो अपनों को खो देने के थे तो क्या "धर्म" का खेल इन्सान से ज्यादा हो गया था जो उस दिन बाबरी मस्जिद को तोड़ दिया गया था | और ये साबित कर दिया गया था की जो फैसला एक संवेधानिक प्रणाली के तहत होना था जो बात और जो निर्माण न्यायालय के आदेश पर होना था वो हुआ "भीड़" के फैसलें से,और आक्रोश से हुआ और मस्जिद पर चढ़ कर मस्जिद को तोड़ दिया गया था |

इस दिन सिर्फ मस्जिद नही टूटी थी टूट गयी थी आपसी सोहार्द की इमारत और मोहब्बत खत्म हो गयी थी क्यूंकि इसी दिन "हिन्दू" और "मुस्लिम" बन गये थे भारतीय क्यूंकि हमने धर्म को समझने के लिए राजनीति को आगे कर दिया और खींच दी गयी एक लकीर जिसमे मंदिर और मस्जिद की लड़ाई के भेंट चढ़े लाखों और करोड़ों भारतीय,और उसी नफरत और सिर्फ अंध आफतों की वजह है की आज भी एक खाई और एक दूरी बना दी गयी है सिर्फ "मस्जिद" और "मंदिर" के नाम पर क्या हम लोग इतने ही नासमझ है? क्यूँ नही समझें है की राजनितिक उठापठक और सिर्फ और सिर्फ उसके ज़रिये घोले गये ज़हर में आज भी हम डूबें है? और उसी तारीख के काले दिन की सजा हम भुगत रहें है और शायद आगे भी भुगतते रहें क्यूंकि सियासत हमारे संवेधानिक और न्यायिक मूल्यों पर भारी नजर आ रही है |

आज भी जब जब मस्जिद और मंदिर के नारे लगाते हुए लोग न्यायालय पर सवाल उठातें है तो बहुत कुछ खो सा जाता है उसके भीतर और अब भी हमे सोचना होगा की हम कहा है,क्यूँ है हम न्यायालय और उसके फैसलों पर संतोष न करें क्यूँ राजनीती के जहर से दूर न हो जाएँ क्यों ये न समझें की हमे किस तरह आपस में बांटा गया है इसे समझना और संवेधानिक मूल्यों और न्यायालय के फैसलें पर मान्यता रखना क्यूंकि अगर ऐसा नही होगा तो जिस तरह 30 अक्टूबर 1990 से लेकर 6 दिसम्बर 1992 तक जलते रहें थे शायद आगे भी रहें क्यूंकि भीड़ तो किसी की नही होती है,इसलिए ज़रूरी है राजनितिक दखल को समझने का वरना हम और नफरत घोल लेंगे आपस ही में इसलिए ज़रूरी है उन आरोपियों को सज़ा मिलना जिन्होंने देश के विरुद्ध "भीड़" की शक्ल और ज़रूरी है न्यायिक फैसलों की....

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