ज़िम्मेदारी और हालात ...
मायावती ने राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया एक 'हीरो' की तरह,और उसके पीछे उन्होंने वजह बताई दलितों पर होने वाले अत्याचार पर न बोले जाने देना,अब इस प्रकरण के तमाम राजनितिक,सामाजिक और वैचारिक मतभेद बुराई और अच्छाई को हटा कर सोचिये की इस्तीफा देना कितनी बड़ी बात है और सिर्फ बात मायावती की नही है बात है विरोध दर्ज करा देने की,और अपने समाज के साथ खड़े हो जाने की उनके दुःख को अपना समझ पाने की,लेकिन आप इसी स्थिति को थोड़ा सा पलट दीजिये तो आपको एक ऐसा समाज नजर आएगा जो न इस्तीफा देना जानता है,न विरोध दर्ज कराना जानता है |
कुछ ध्यान आया? ये समाज मुस्लिम समाज है जो "राजनीति' के तहत ही सही दे तो मगर 'इस्तीफा' देना जानता ही नही है,विरोध दर्ज कराना जानता ही नही है ,जिसके लिए और जिसके "नेताओ" के लिए इन चीजों के मायने है ही नही |
आज से तकरीबन चार साल पहले मुज़फ्फरनगर में आग लगी थी,दंगों की आग पूरा ज़िला दंगे की चपेट में था,हजारों की तादाद में मुस्लिम समाज के लोग बेघर हो गये थे,सेकड़ों मारे गये थे,हालात ये हो गयें थे की सडक पर सेना को उतरना पड़ा था,चलिए जी किसी तरह हालत स्थिर हुए,उस वक़्त की संख्या के हिसाब से उत्तर प्रदेश विधानसभा में 67 मुस्लिम विधायक थे,लोकसभा में उत्तर प्रदेश से 6 सांसद मुस्लिम थे लेकिन एक भी इस्तीफा नही दिया गया और तो और सरकार भी "सेक्युलर" मुलायम सिंह के पुत्र अखिलेश साहब की थी|
इससे भी ज्यादा उसमे बहुत से मुस्लिम कैबिनेट मंत्री मुस्लिम थे लेकिन एक का भी इस्तीफा नही आया,एक से भी अपनी गद्दी नही छोड़ी गयी,असल में ये अफ़सोस का मसला है ही नही ये मसला तो सोचने का है की जिस समाज के "राजनेताओ" को भी इतना शऊर न हो उसकी स्थिति क्या होगी और क्या हो सकती है?
असल में पूरी गलती इनकी कहने से पहले हमे ये जान लेना और समझना भी ज़रूरी है की शायद ये समाज,इसका इस बात को जानता ही नही है की इस्तीफा देना लोकतन्त्र के लिए कितना महत्वपूर्ण है,क्यूंकि ये जानते नही है की एक ट्रेन दुर्घटना के बाद अपनी ज़िम्मेदारी को समझते हुए,देश के पूर्व प्रधानमन्त्री और तत्कालीन रेल मंत्री ने इस्तीफा क्यों दिया था,या सिर्फ अपनी मांगो को पूरा न होने की स्थिति में प्रधानमन्त्री मंत्री का पद भी न अपनाने वाले ज्योति बसु के सिद्धांत क्या थे,और क्यों थे और क्या वजह थी की "अखलाक" की मौत के बाद भी इस्तीफा देना वाले उदय प्रकाश क्यूँ थे?
आखिर क्यों अकेले ही सही मगर खुशवंत सिंह ने "1984" के विरोध में अपना अवार्ड वापसी किया था, सवाल तो बहुत है लेकिन इस समाज के पास जवाब नही है क्यूंकि आज भी ये समाज "कन्फ्यूज्ड" है,क्यूंकि कांग्रेस ने इसे "सेकुलर" घुट्टी पिलाकर सब को खत्म कर दिया है, ये समाज "चोराहों पर खड़ा है",क्यूंकि ये पढ़" नही रहा है और इस स्थिति में इनसे या इनके "नेताओं" से ये सवाल या शिकायत असल में है बेईमानी ही बहुत बड़ी बेईमानी |
मगर साहब क्या करें बहुत सोचने वाली स्थति है की जब देश में "नोट इन माय नेम" चलता है तो हम "फिल्मे" देखते है,जब कोई इस्तीफा देता है तो ये "पार्टी" करते है ,लेकिन इस समाज की और इससे जुड़े लोगों की हकीकत ये है की ये समाज आज भी कहीं है नही,और अगर कोई इन्हें किसी लाइन में खड़ा करता है आगे पीछे या सबसे पीछे,तो ये भी सोचना होगा की ये समाज अभी कहीं है ही नही,बस अकेला और असहज अभी सिर्फ सोच रहा है,वो बिना "थिंकिंग टैंक" के बिना "विचारों" के और बिना "नेताओं" के इनके बदलाव में वक़्त लगेगा,लेकिन इस बात में अच्छी और बेहतर बात बस ये है की "बदलाव" हो सकता है |
असद शैख़
कुछ ध्यान आया? ये समाज मुस्लिम समाज है जो "राजनीति' के तहत ही सही दे तो मगर 'इस्तीफा' देना जानता ही नही है,विरोध दर्ज कराना जानता ही नही है ,जिसके लिए और जिसके "नेताओ" के लिए इन चीजों के मायने है ही नही |
आज से तकरीबन चार साल पहले मुज़फ्फरनगर में आग लगी थी,दंगों की आग पूरा ज़िला दंगे की चपेट में था,हजारों की तादाद में मुस्लिम समाज के लोग बेघर हो गये थे,सेकड़ों मारे गये थे,हालात ये हो गयें थे की सडक पर सेना को उतरना पड़ा था,चलिए जी किसी तरह हालत स्थिर हुए,उस वक़्त की संख्या के हिसाब से उत्तर प्रदेश विधानसभा में 67 मुस्लिम विधायक थे,लोकसभा में उत्तर प्रदेश से 6 सांसद मुस्लिम थे लेकिन एक भी इस्तीफा नही दिया गया और तो और सरकार भी "सेक्युलर" मुलायम सिंह के पुत्र अखिलेश साहब की थी|
इससे भी ज्यादा उसमे बहुत से मुस्लिम कैबिनेट मंत्री मुस्लिम थे लेकिन एक का भी इस्तीफा नही आया,एक से भी अपनी गद्दी नही छोड़ी गयी,असल में ये अफ़सोस का मसला है ही नही ये मसला तो सोचने का है की जिस समाज के "राजनेताओ" को भी इतना शऊर न हो उसकी स्थिति क्या होगी और क्या हो सकती है?
असल में पूरी गलती इनकी कहने से पहले हमे ये जान लेना और समझना भी ज़रूरी है की शायद ये समाज,इसका इस बात को जानता ही नही है की इस्तीफा देना लोकतन्त्र के लिए कितना महत्वपूर्ण है,क्यूंकि ये जानते नही है की एक ट्रेन दुर्घटना के बाद अपनी ज़िम्मेदारी को समझते हुए,देश के पूर्व प्रधानमन्त्री और तत्कालीन रेल मंत्री ने इस्तीफा क्यों दिया था,या सिर्फ अपनी मांगो को पूरा न होने की स्थिति में प्रधानमन्त्री मंत्री का पद भी न अपनाने वाले ज्योति बसु के सिद्धांत क्या थे,और क्यों थे और क्या वजह थी की "अखलाक" की मौत के बाद भी इस्तीफा देना वाले उदय प्रकाश क्यूँ थे?
आखिर क्यों अकेले ही सही मगर खुशवंत सिंह ने "1984" के विरोध में अपना अवार्ड वापसी किया था, सवाल तो बहुत है लेकिन इस समाज के पास जवाब नही है क्यूंकि आज भी ये समाज "कन्फ्यूज्ड" है,क्यूंकि कांग्रेस ने इसे "सेकुलर" घुट्टी पिलाकर सब को खत्म कर दिया है, ये समाज "चोराहों पर खड़ा है",क्यूंकि ये पढ़" नही रहा है और इस स्थिति में इनसे या इनके "नेताओं" से ये सवाल या शिकायत असल में है बेईमानी ही बहुत बड़ी बेईमानी |
मगर साहब क्या करें बहुत सोचने वाली स्थति है की जब देश में "नोट इन माय नेम" चलता है तो हम "फिल्मे" देखते है,जब कोई इस्तीफा देता है तो ये "पार्टी" करते है ,लेकिन इस समाज की और इससे जुड़े लोगों की हकीकत ये है की ये समाज आज भी कहीं है नही,और अगर कोई इन्हें किसी लाइन में खड़ा करता है आगे पीछे या सबसे पीछे,तो ये भी सोचना होगा की ये समाज अभी कहीं है ही नही,बस अकेला और असहज अभी सिर्फ सोच रहा है,वो बिना "थिंकिंग टैंक" के बिना "विचारों" के और बिना "नेताओं" के इनके बदलाव में वक़्त लगेगा,लेकिन इस बात में अच्छी और बेहतर बात बस ये है की "बदलाव" हो सकता है |
असद शैख़
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