मुस्लिम रहनुमाई

एक समाज के लिए,एक देश के लिए,एल कल्चर के लिए और क़ौम के लिए 10 से 20 साल सम्भलने के लिए अपने अपने आप को सुधारने के लिए बहुत होता है ,आज़ादी के बाद से 20 साल के भीतर दलितों की समस्याओं के कुछ समाधान होने लगे थे,40 साल बाद वो लगभग सबके बराबर आ खड़ी हुई थी ,दलितों के नाम पर ही सही राजनीतिक पार्टी तैयार ही चुकी थी सरकारी नौकरियों में दलित समाज पहुँच रहा था ,वो शिक्षित हो रहे थे, इसमें गौरतलब करने वाली बात ये भी है की दलितों को आज तक भी एक कथित ऊँचा तबका नीची नज़रों से देखता है मगर फिर भी ये समाज अपनी ताक़त को समझ रहा था,अपना हक़ जान रहा था मगर अगर लगभग उसी की बराबरी की देश में तादाद वाले मुस्लिम समाज की बात करे तो उसके मामले को राजनेतिक,आर्थिक से लेकर सामजिक सभी मामलात को साम्प्रदायिक नज़रो से देखा गया, हालात तब और खराब हुए जब यूपीए की पहली सरकार ने सच्चर कमिटी का गठन कर मुस्लिम समुदाय की आर्थिक स्तिथि जानने की करी तो उस रिपोर्ट पर भी साम्प्रदायिक होने का आरोप लगा वजह कुछ भी हो मुस्लिम साम्प्रदायिकता की बली ही चढे।

सच्चर कमिटी के अनुसार मिली जानकारी के मुताबिक मुस्लिम आर्थिक ,सामाजिक, शैक्षिक आधार पर बेहद पिछड़े है उनके हालात दलितों से भी बदतर है, बस इस बात का फायदा तमाम राजनेतिक दलों ने उठाया और मुस्लिम समुदाय को आरक्षण देने की बात करी,वायदे किये ,जनसभाएं की मगर ये सब सिर्फ चुनावी जुमले ही मालूम हुए और मुस्लिम जस के तस है ।

ये मुस्लिम कमज़ोरियों की बात हुई मगर मुस्लिम समुदाय को जिस तरह राजनेतिक दलों ने आज़ादी से अब तक सिर्फ आलू समझा और मखोल बना कर इस्तेमाल किया मगर सवाल ये है की जो मुस्लिम नेता इन पार्टियों में रहे उन्होंने क्या किया? उन्होंने कोनसी रहनुमाई की? कुछ भी नही हज़ारो दंगो को झेल चुके मुस्लिम समुदाय का हाल ये है की आज मुस्लिम वोटो को किसी दल की ज़रूरत नही क्योंकि भाजपा के डर से मुस्लिम समुदाय किसी न किसी कथित सेक्युलर दल को वोट देगा ही . हालत ये हो आये है की मुस्लिम नेता जिनकी ज़्यादा अहमैयित हुआ करती थी अब वो नही रही है उन्हें दरकिनार किया जा रहा है.

मुस्लिमों की यदि किसी राजनेतिक पार्टी और उस पार्टी की रहनुमाओ की अगर बात करे तो यदि वो नेता कुछ करना चाहते है,कोई दल या गठबंधन बनाना चाहते है तो उनपर सांप्रदयिकता का ठप्पा लगा दिया जाता है हालात ये है की असम के बद्दरूद्दीन अगर कांग्रेस के साथ है तो सेक्युलर और अलग लड़ते है तो कम्युनल यही हाल राष्ट्रिय उलेमा कॉउंसिल का भी है वो भी कथित सेक्युलर दलों द्वारा साम्प्रदयिक घोषित कर दी गयी है ,चलिये मत बनने दीजिये किसी मुस्लिम पार्टी को उनकी समस्याओं का हल तो करिये मगर नही उनकी शिक्षा ,सामाजिकता और आर्थिकता को बढ़ाने की जगह उन्हें दंगो में झोंक दिया जाता है और उनके बदतर हालत को और भी बदतरीन कर दिया जाता है, इसका ज़िम्मेदार कोन कांग्रेस ,भाजपा या सपा कोई भी ज़िम्मेदार हो सकता है मगर मुस्लिम क़ौम की हालत में कोई भी सुधार नही होता है , मुस्लिम सियासती पार्टी पर मुस्लिम मामलो की जानकर और सियासत की अख़बार की सम्पादक नाहिद फातमा कहती है की "मुस्लिम जब तक अपने भले के लिए सरकारों और नेताओं और आरक्षण का नाम लेकर शोर मचाते रहेंगे तो उनका कुछ नही होगा मुस्लिम समुदाय को एकजुट होकर अपने सामजिक और आर्थिक हालात में बदलाव लाना होगा और एकजुट होकर अपनी राजनेतिक लालसा को भूल कर एकजुट होना होगा तब मुस्लिम समुदाय बेहतर हो सकता है" ये बात तब और सिद्ध होती है जब मुस्लिम समुदाय में एकजुटता नज़र भी नही आती है फिर चाहे बेगुनाह मुस्लिम नौजवानों की बात हो या साम्प्रदयिक दंगे हो अब तब ही कोई रहनुमा मुस्लिम समुदाय का भला कर सकता है जब वो उस समुदाय की बेहतरी सोच पाये वरना ये क़ौम तो है ही बदनाम....

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