तोप का मज़ाक।।।

मीडिया यानि अंधे समाज की लाठी  सिर्फ यही एक बेहतर नाम है जो हमारे अनपढ़ समाज के लिए कहा जा सकता है मीडिया का रुतबा भारत के समाज में बहुत बड़ा है इस मीडिया को हमारे लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा गया वो अलग बात है की कई आलोचनाकार और लेखक इस बात को कहना नही चाहते है शायद इस की वजह पत्रकारिता के नाम पर हो रहा धंधा है जी हा ये " धंधा" शब्द इसलिए प्रयोग कर रहा हु क्योंकि पेड मीडिया और रिश्वत लेते गिरफ्तार होते पत्रकार इस बात को सही सिद्ध भी करते है फिर भी पत्रकारिता है तो हमारा चौथा स्तम्भ जो हमारे लोकतन्त्र के लिए स्तम्भ तो है मगर ये स्तम्भ अब दीमग लगा नज़र आ रहा है आखिर क्यों? आखिर क्यों इतना सबकुछ होने के बाद भी पत्रकारिता के सस्थानो में अब भी वही भारतेंदु के सिद्धान्त पढ़ाये जा रहे है? क्यों अरबो करोडो के "दान" नामक पैसे चल रहे प्राइवेट चैनल क्यों बायस्ड हो रहे है ये कई ऐसे सवाल है जो हमारी छाती पर दौड़ तो रहे है बस महत्वपूर्ण ये है की कुछ इसे महसूस करते है और कुछ इसे नज़रअंदाज़ कर देते है आइये इसका फ़र्क़ जानते है .

मीडिया कब शुरू हुआ कब पत्रकरिता शरू हुई कोनसा पहला चैनल था वगेरह सरी बातें या जानकारी आपको मुझे या तो किताबो से या लेक्चर्स में सुनने और पढ़ने को तो मिल जाती है मगर हमे कोई ये क्यों नही बताता की 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने क्या किया? कोई ये क्यों नही  बताता की 2014 के आम चुनावो ने बीजेपी ने चुनाव प्रचार में कितना पेस बहाया? आखिर कैसे जेएनयू में देशद्रोही नारे लगवा दिए गए ? क्यों क्यों एहि महत्वपूर्ण है की आखिर कैसे कक्यू इस तरह बदलाव हमारे सामने आते गए आखिर कब ये पत्रकारिता उदारीकरण के नशे में इतनी डूब गयी और अपनी सौदा खुद करने लगी आखिर कैसे पत्रकारिता में धर्म देखा जाने लगा कैसे पत्रकारिता में जाति को ज़रूरी बना लिया गया जी हा चाहे बात मुज़फ्फरनगर दंगे की हो या जेएनयू प्रकरण की हो आइपीएल में इस्तेमाल होने वाले पैसे से लेकर चुनावो में न्यूज़ चैनल्स को किराये पर लेने को बात हो सभी जगह एक ही चीज़ नज़र आती है और शायद वो ही सबसे नुक्सानदेह है और वो है "पक्षपात" जी है अब पत्रकरिता यानी सच को "दल्ला" , "ग़ुलाम" , "धर्म विरोधी" कहा जाना या हमारा सुना जाना आम सा लगता है लेकिन क्या आप इसे उचित मान सकता है जिस तरह लगभग प्रत्येक न्यूज़ चैनल किसी न किसी पार्टी के प्रवक्ता की तरह काम कर रहा है आइये इन उदाहरण पर नज़र डालते है।।

1) मुज़फ्फरनगर दंगे के समय जब प्रत्येक न्यूज़ चैनल को सिर्फ और सिर्फ सही रिपोर्टिंग करना था और तमाम लोगो से शांति की अपील करना था वही देश के कथित बड़े अखबारो ने ऐसे कार्य किया मानो वो दंगे कराने के इच्छुक हो वहां के राष्ट्रिय समाचार पत्र ने एक छोटी आपसी घटना को सिद्ध कर दिया की ये घटना दो समुदाय के बीच की है और इस घटना से एक समुदाय की शान में कमी आई है अब आप ही बताइये क्या ये पत्रकरिता है? मुज़फ्फरनगर दंगा बेशक सरकार की नाकामी है लेकिन क्या वहा मामले का बड़ा होना के लिए ज़िम्मेदार नही है?

2) जेएनयू में 9 फ़रवरी की शाम को देशविरोधी विरोधी नारे लगाये गए और ये देश के लिए अचम्भित और शर्मसार कर देना था की देश की इतनी बड़ी यूनिवर्सिटी में देशद्रोही नारे लग कैसे सकते है? बेशक इस पर मीडिया को अपना काम करना था लेकिन इस पर देः के एक बहुत बड़े न्यूज़ चैनल ने इस तरह रिपोर्टिंग करी की मानो वो न्यूज़ चैनल सुप्रीम कोर्ट का जज हो और जेएनयू के सारे छात्र देशद्रोही और वो यूनिवर्सिटी देशद्रोह का गड "देशद्रोही कब गिरफ्तार" , आतंकी खालिद कब गिरफ्तार" बिना तथ्य और सबूत के इस तरह किसी को भी देशद्रोही बना देना क्या देश की पत्रकारिता का मज़ाक नही है और आखिर किसने इन न्यूज़ चेंनेल को ये हक़ दिया की वो जज बन जाये और फैसला सुनाये।

ये दो उदाहरण पूर्ण रूप से काफी है आज की मीडिया की सच्चाई बताने के लिए में ये लिखकर ये बताना नही चाहता की ये संस्थान गलत है या पक्षपाती है में बस इतना ही कहना चाहता हु मीडिया का मतलब सिर्फ और सिर्फ सच सामने लाना है वो भी बिना किसी भेदभाव और पक्षपात के सबके सामने लाना लेकिन यहाँ इसके उलट काम करने के बाद होता ऐसा है मानो किसी धरा को मोड़ देना जी हा मीडिया ने अपना रूप के ऐसा बना लिया है की प्रत्येक चैनल और न्यूज़ मैगजीन्स से लेकर अन्य सभी तक(चुनिंदा को छोड़ दे तो ) सभी किसी न किसी पार्टी के प्रवकता जैसा काम कर रहें है और फिर उसके बाद अपने लोकतंत्र का चौथा खम्बा भी कह रहे है तो ये सच में शर्मनाक है और दुखदायी भी है लेकिन इसका एक और सच ये भी है को जिस तरह कॉरपोरेट्स जगत और उद्योगपतियों का मोटा पेसा अनेको चैनेलो में लग रहा है और उसे चन्दा समझ कर इस्तेमाल किया जा रहा है तो क्यों आखिर वो चैनल भी उन उद्योग हस्तियों के ग़ुलाम नही होंगे? क्यों उनके कहे गए के अनुसार वो कार्य नही करेंगे? ये सवाल हालांकि बेहद घुमाने वाले है मगर इसके उलट सवाल हमे सोचने पर मजबूर करते है हमसे ये सवाल चींख चींख कर पूछते है की चौथा खम्बा प्राइवेट खम्बा क्यों बना ये सवाल सच में झंकझोर देता है।।

अब इन सरे तथ्य देखे जाने के बाद या पढ़े जाने के बाद एक और सवाल है की जब मीडिया प्राइवेटाइजेशन का अड्डा होता जा रहा है वहा पेड मीडिया जेसी चीज़ आना आम सी बात है तो फिर देश के बड़े बड़े मीडिया संस्थान में क्यों भारतेंदु की पत्रकारिता पढाई जा रही है ? क्यों वहा अकबर इलाहाबादी का तोप मुकाबिल हो पढ़ाया जा रहा है? आखिर कैसे जिन लोग को सिद्धान्त का पता ही न हो और उन संस्थानों में जाकर इन संस्थानों का पढ़ाया जाना जब कूड़े जैसा हो तो क्यों आखिर ये सिद्धान्तो का ढोंग किया जा रहा है? में ये सवाल पूछ मीडिया सस्थानो से है मगर ये सवाल देश के लिए और हर नागरिक के लिए है की कैसे मीडिया "धंधा" करता है परन्तु मीडिया की शिक्षा जिस तरह हमे दी जा रही है क्या उस तरह को चीज़े हमारे सामने आती भी है नही बिलकुल नही तो फिर जब ये सिद्धान्त जब ये कानून जो हमे पढ़ाये जा रहे है एयर हमारे कम ये पत्रकारिता या मीडिया के एनी संस्थानों की चंकाचौँध में खो जाने वाले है तो आखिर ज़रूरत भी क्या इस चीज़ सी ? क्याऔर हम उसे पक्ष का होने पर तो सुन लेते है मगर जब वो हमारे पक्ष में नही होता तो उसे हम अपना दुश्मन मान लेते है ये सचमुच में एक ऐसा ज़ेहर है जो सब में फैल चूका है मगर ये शायद स्लो ज़हर है जो हममे इसका असर नही हो रहा या हम इसके आदी हो गए ये भी हो सकता है क्योंकि यदि मीडिया पक्षपाती हुआ है सांप्रदायिक हुआ है उसने तार्किक बातें करनी बंद की है तो जितना ज़िम्मेदार चंदा लेने वाले बड़े बड़े लोग है उतने ही ज़िम्मेदार है वो दर्शक वो जनता वो भीड़ क्योंकि गलत चीज़ को अपने पक्ष में होता  देख तो हम खुश हो जाते है और मेडीआ का गुणगान शुरू कर देते है मगर जब पक्ष में नही होगा तो हैं मीडिया को गरियाएंगे यही है बराबर ज़िम्मेदार हो जाना "बायस्ड" हो जाना और इसी वजह से हम सही गलत का फ़र्क़ नही समझ पाते है ये सच में शर्मसार कर देंने वाला है परंतु अब जब हम किसी  न किसी मीडिया संस्थान के भक्त हो ही चुके है तो हमे मीडिया के दोगलेपन पर बोलने का हक़ नही है बाकी अब तोप मुकाबिल से काम नही होता है अब तो पूर्ण रूप से नोट मुकाबिल से होता है शायद न हो लेकिन अगर ऐसा हो होता है तो ये चौथे खम्बे को ढहाया जाना है बाकी आल फैसला करिये।

Comments

Popular posts from this blog

असदुद्दीन ओवैसी जिनकी राजनीति सबसे अलग है...

क्या है कांग्रेस की पॉलिटिक्स ?

सर सैयद डे की अहमियत...