सिनेमा का "खेल"

एक अनिल कपूर एक साथ दो- दो फिल्मो में आ रहा है टीवी पर" ये वाक्य ज़ाहिर कर रहे है की किस तरह सिनेमा को बिलकुल न समझ पाना या सिनेमा के प्रसारण के मार्फ़त से उस ज़माने में बच्चों को कितना पता था की कितनी मासूमियत कितनी सच्चाई को हम जानते है लेकिन अब अगर मौजूदा समय में सिनेमा ,नाटक, या अन्य किसी चलचित्र को देखकर या समझकर ऐसा लगता भी है क्या? आखिर क्यों शाहरुख़ के एसियन पेंट के विज्ञापन के बाद अगर हम पेंट खरीदने जाते है आसियान पेंट ही ले आते है? क्यों जॉन अब्राहम के फेस वाश के बारे में ही स्टोर से मांगते है ? ये सवाल वही से उठता है जब मोहल्ले के एक टीवी को बैठकर हफ्ते में आने वाली एक फ़िल्म को देखने के बाद सारे के सारे बच्चे रोतै थे और अब जीन्स और टीशर्ट को किसी बड़े इंसान के बेचे जाने तक और हमारे खरीदने तक के सवाल पर उठता है की ये केसा कब्ज़ा है ?मीडिया और सिनेमा पर किसका कब्ज़ा है?ऐसा कब्ज़ा क्यों है?

आप आजकल के किसी भी धारावाहिक से लेकर उसमें आने वाले विज्ञापन तक या उन धारावाहिको में इस्तेमाल होने वाले तमाम महंगी गाडियो तक और महंगे से महंगे कपड़ो तक क्या कुछ भी कही से लोअर मिडिल क्लास के बस की बात लगती है? क्या लोअर मिडिल क्लास इन चीज़ों को खरीद भी सकता है? नही न यही तो बात है आजकल के धारावाहिक एक ऐसे हथियार के रूप में इस्तेमाल हो रहे है जो ज़बरदस्ती आपसे महंगे प्रोडक्ट्स और आइटम्स इस्तेमाल से लेकर खरीदने तक को मजबूर करेगा और आप लाख कोशिश करो मगर हार मानकर आप खरीदो ज़रूर ज़रूर खरीदोगे क्योंकि बड़ा फ़ोन जब एक बड़ा फ़िल्मी हीरो इस्तेमाल करेगा तो लेना ज़रूरी है और जब एक चमक धमक वाली अभिनेत्री कोई महिला उपयोगी सामान या कोई अन्य मेडिकल का सामान बेचने धारावाहिको के बीच में आपके सामने आयगी तो आपके दिमाग में वो घर कर जायगी और उस विज्ञापन को देखना आपकी मज़बूरी सी बन जाती है क्योंकि सीरियल को ऐसी जगह रोका जाता है जहा आप उसे हटा नही सकते है तभी सबसे महत्वपूर्ण चीज़ का विज्ञापन सबसे प्रतिष्टित और खूबसूरत एक्टर या एक्ट्रेस से वो विज्ञापन कराया जाता है और इस तरह वो विज्ञापन सेट हो जाता ही हमारे दिमाग में और हम जब दुकान पर कुछ खरीदने जाते है तो तुरंत टूथपेस्ट से लेकर पेंट तक पेन से लेकर मोबाइल तक सभी विज्ञापन में दिखाई गयी चीज़े हमारे दिमाग में घूम जाती है और हम दर्शक से खरीददार बन जाते है और उस मायाजाल में फंस जाते है जहा हम शायद फंसना नही चाहते है।।

ये बात हुई विज्ञापनों की लेकिन विज्ञापनों को आप किसी तरह जस्टिफाई कर सकते है मगर अब तो हालात ये है की धारावाहिक जो पूरी की पूरी पटकथा पर यहाँ तक बड़े लेखको की कथाओ की पटकथा पर धारावाहिक बनाये जाते थे अब वो ऐसी तथाकथित पटकथा पर बन रहे ही जिसके बीच में त्यौहार, शादी, झगड़ा बिना बताये आ  जाते है ये सब धड़ल्ले से बिना बेईमानी के साथ सबके सामने परोसा जा रहा है अब आप ज़रा विज्ञापनों और धारावाहिको से दूर हटकर ज़रा ये सोचिये की आखिर क्यों इस तरह की चीज़े जो शायद "विज्ञापनी धारावाहिक" कही जाने चाहिए लेकिन वो एक अच्छा भला धारावाहिक बनकर सामने आ रही है और हम उसे बड़े चाव से देख रहे है क्योंकि हम उसके आदी हो रहे है और इससे न तो कुछ सीखने को मिलता है न कुछ हासिल होता है ये सिर्फ एक बडे व्यवसाय की तरह चल रहा है ।

जिस तरह हर गलत चीज़ की लत लगने के बाद लत्ती को ही बुरा कहा जाता है ठीक उसी तरह जब हम इन कथित धारावाहिको के लत्ती बन जाते है सही या गलत होने का इलज़ाम भी हम पर होता है। हम क्यों आखिर इस बात को समझ नही पा रहे है की जिस तरह फिल्मो ,धारावाहिको से लेकर ऐड फिल्मो में दिखाए जाने वाले किसी भी अंश से देश के 80 प्रतिशत जनता की रोज़ी रोटी का कुछ लेना देना नही है उनकी गरीबी का कुछ वास्ता नही है लेकिन फिर भी जिर ज़बरदस्ती से कहले या आदत डलवाकर ऐसा कुछ दिखाया जाता है जो शायद देखना भी न चाहे लेकिन में सिर्फ एक बात पूछना चाहते हु सिनेमा की इस रंगीन दुनिया से सवाल पूछना चाहता हु की जिस समाज में प्रेमचंद से लेकर गुलज़ार तक गुरु दत्त साहब से लेकर आमिर खांन तक के फिल्में और कार्यक्रम चलते हुए नज़र आये है वहा से पूर्णत रूप में इन सब का गायब हो जाना क्या वास्तविक सिनेमा को खोखला कर देना नही है ? क्या ये वास्तविक सिनेमा के लिए खतरा नही है की कार्यक्रम से ज़्यादा विज्ञापन आये ? मुझे तो इन सब चीज़ों से एक ही डर लगता है की अब तो किसी तरह हमने साहित्यकारों और नाटककारों को याद रख रखा है लेकिन क्या आगे आने वाले समय भी इन्हें इन हालात में याद रखा जा सकेगा मुझे तो नही लगता शायद आप इस आस में हो...

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